29 March 2014

आएगी सरकार किसकी है बड़ा संकट मियाँ


आएगी सरकार किसकी है बड़ा संकट मियाँ
देखिए अब बैठता है ऊँट किस  करवट मियाँ

कुछ  ज़रुरत ज़िन्दगी की ,कुछ उसूलों के सवाल
चल  रही है इन दिनों ख़ुद से  मेरी खटपट मियाँ

मुश्किलें आएं तो हँसकर  झेलना भी सीखिए
ज़िंदगी वर्ना लगेगी  आपको झंझट मियाँ

तुम चले जाओ भले संसद में ये मत भूलना
चूमनी है लौटकर कल फिर  यही चौखट मियाँ

बदहवासी का ये आलम क्यूँ है  बतलाओ ज़रा
लोग भागे जा रहे हैं किसलिए सरपट मियाँ

जिनसे  हम उम्मीद करते हैं सँवारेंगे  इसे
कर रहे  हैं मुल्क को वो लोग ही चौपट मियाँ

गाँव आकर ढूँढता हूँ गाँव वाले चित्र वो
छाँव बरगद की किधर है ,है कहाँ पनघट   मियाँ

पीढ़ियों को कौन समझाएगा कल पूछेंगी जब
लाज  क्या होती है और क्या चीज़ है घूंघट मियाँ

21 March 2014

हँसी ख़ामोश हो जाती

-ओम प्रकाश यती

हँसी ख़ामोश हो जाती, ख़ुशी ख़तरे में पड़ती है
यहाँ हर रोज़ कोई ‘दामिनी’ ख़तरे में पड़ती है

जुआ खेला था तो ख़ुद झेलते दुशवारियाँ उसकी
भला उसके लिए क्यों द्रौपदी ख़तरे में पड़ती है

हमारे तीर्थों के रास्ते हैं इस क़दर मुश्किल
पहुँच जाओ अगर तो वापसी ख़तरे में पड़ती है

पहाड़ों - जंगलों से तो सुरक्षित है निकल आती
मगर शहरों के पास आकर नदी ख़तरे में पड़ती है

तभी वो दूसरे आधार पर ईनाम देते हैं
अगर प्रतिभा को देखें, रेवड़ी ख़तरे में पड़ती है

ज़रा बच्चों के ‘मिड-डे-मील’ को तो बख़्श दो भाई
ये हैं मासूम, इनकी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ती है

परोसा है ग़ज़ल के नाम पर फिर ‘फेसबुक’ ने कुछ
नहीं ‘लाइक’  करूँ तो दोस्ती ख़तरे में पड़ती है

-ओमप्रकाश यती

11 April 2010

ये जंगल कट गए तो किसके साए में गुज़र होगी, हमेशा इन बुजुर्गों को हमारे साथ रहने दो।


परिचय

[ओमप्रकाश यती]


पिता- श्री सीताराम यती
जन्म- 3 दिसम्बर 1959 को बलिया उ० प्र० के ‘छिब्बी’ गाँव में।
शिक्षा- प्रारंभिक शिक्षा गाँव में तत्पश्चात् सिविल इंजीनियरिंग तथा विधि में स्नातक और हिन्दी साहित्य में एम. ए.
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह- ‘बाहर छाया भीतर धूप’ राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित।
हिन्दुस्तानी ग़ज़लें, ग़ज़ल दुष्यन्त के बाद, ग़ज़ल एकादशी तथा कई अन्य महत्वपूर्ण संकलनों में ग़ज़लें सम्मिलित।
अन्य- प्रसार भारती के सर्वभाषा कवि–सम्मेलन 2008 नागपुर में आयोजित में कन्नड़ कविता के अनुवादक कवि के रूप में भागीदारी।

सम्प्रति- उ प्र सिंचाई विभाग में सहायक अभियन्ता पद पर कार्यरत।

पता-
एच–89, बीटा–2,
ग्रेटर नोएडा–201308


मो- 09999075942
09410476193

ई–मेल-
yatiom@gmail.com

10 April 2010

कुछ खट्टा कुछ मीठा लेकर

कुछ खट्टा कुछ मीठा लेकर घर आया।
अनुभव कैसा–कैसा लेकर घर आया।

खेल–खिलौने भूल गया सब मेले में
वो दादी का चिमटा लेकर घर आया।

होमवर्क का बोझ अभी भी सर पर है
जैसे तैसे बस्ता लेकर घर आया।

उसको उसके हिस्से का आदर देना
जो बेटी का रिश्ता लेकर घर आया।

कौन उसूलों के पीछे भूखों मरता
वो भी अपना हिस्सा लेकर घर आया।

–ओमप्रकाश यती

रिश्तों का उपवन इतना

रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा।
हमने कभी बुजुर्गों का अपमान नहीं देखा।

जिनकी बुनियादें ही धन्धों पर आधारित हैं
ऐसे रिश्तों को चढ़ते परवान नहीं देखा।

गिद्धों के ग़ायब होने की चिन्ता है उनको
हमने मुद्दत से कोई इंसान नहीं देखा।

दो पल को भी बैरागी कैसे हो पाएगा
उसका मन जिसने जाकर शमशान नहीं देखा।

दिल से दिल के तार मिलाकर जब यारी कर ली
हमने उसके बाद नफ़ा–नुक़सान नहीं देखा।

–ओमप्रकाश यती

हँसी को और खुशियों को

हँसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
अभी कुछ देर सपनों को हमारे साथ रहने दो।

तुम्हें फुरसत नहीं तो जाओ बेटा आज ही जाओ
मगर दो रोज़ बच्चों को हमारे साथ रहने दो।

ये जंगल कट गए तो किसके साए में गुज़र होगी
हमेशा इन बुजुर्गों को हमारे साथ रहने दो।

हरा सब कुछ नहीं है इस धरा पर हम दिखा देंगे
ज़रा सावन के अंधों को हमारे साथ रहने दो।

ग़ज़ल में, गीत में, मुक्तक में ढल जाएंगे ये इक दिन
भटकते फिरते शब्दों को हमारे साथ रहने दो।

–ओमप्रकाश यती

क्यों शहरों में आकर

क्यों शहरों में आकर ऐसा लगता है।
जीवन का रस सूखा–सूखा लगता है।

मानें तो सबके ही रिश्ते हैं सबसे
वर्ना किसका कौन यहाँ क्या लगता है?

जीवन का अंजाम नज़र में रख लें तो
सब कुछ जैसे एक तमाशा लगता है।

गाँव छोड़कर शहरों में जब आए तो
हमको अपना नाम पुराना लगता है।

बारुदी ताक़त है जिसके हाथों में
उसको ये संसार ज़रा-सा लगता है।

–ओमप्रकाश यती

ज़िदगी सादा–सहज हो

ज़िदगी सादा–सहज हो, कुछ बनावट कम तो हो।
प्यार फैले, नफ़रतों का शोर कुछ मद्धम तो हो।

बात हम अपने पड़ोसी से करें कैसे शुरु
कुछ फ़जा का रंग बदले, कुछ नया मौसम तो हो।

सीख लेंगे लोग इक दूजे पे देना जान भी
रहनुमा के हाथ में ऐसा कोई परचम तो हो।

मुश्किलें दिखलाएँगी खुद मंजिलों का रास्ता
हौसला तो हो दिलों में, बाज़ुओं में दम तो हो।

तार दिल के जोड़कर रखना ज़माने से ज़रुर
जब किसी के अश्रु निकलें आँख तेरी नम तो हो।


–ओमप्रकाश यती

देखो कितने अच्छे

देखो कितने अच्छे मेरे साथी हैं।
पेड़, किताबें, बच्चे मेरे साथी हैं।

कर ले कोई लाख बुराई भी मेरी
उनको क्या जो मन से मेरे साथी हैं।

निष्ठा का ये हाल सियासत में अब है
रोज़ बदलते झण्डे मेरे साथी हैं।

काम पड़े तब देखें आते हैं कितने
कहने को तो नब्बे मेरे साथी हैं।

अपने और पराए का अन्तर कैसा
सब अल्ला के बन्दे मेरे साथी हैं।

–ओमप्रकाश यती

नदी कानून की, शातिर शिकारी

नदी कानून की, शातिर शिकारी तैर जाता है।
यहाँ पर डूबता हल्का है भारी तैर जाता है।

उसे कब नाव की, पतवार की दरकार होती है
निभानी है जिसे लहरों से यारी, तैर जाता है।

बताते हैं कि भवसागर में दौलत की नहीं चलती
वहाँ रह जाते हैं राजा भिखारी तैर जाता है।

समझता है तुम्हारे नाम की महिमा को पत्थर भी
तभी है राम! मर्ज़ी पर तुम्हारी तैर जाता है।

निकलते हैं जो बच्चे घर से बाहर खेलने को भी
मुहल्ले भर की आँखों में ‘निठारी’ तैर जाता है।

–ओमप्रकाश यती

कौन मानेगा नसीहत ही मेरी

कौन मानेगा नसीहत ही मेरी।
खुल गई है जब हक़ीक़त ही मेरी।

चुटकुले सब आपके दिलचस्प हैं
अनमनी कुछ है तबीयत ही मेरी।

कौन अपमानित कराता है मुझे
सच कहूँ तो सिर्फ़ नीयत ही मेरी।

साथ होगा कौन अन्तिम दौर में
तय करेगी अब वसीयत ही मेरी।

यार तुम भी सज गए बाज़ार में
पूछते फिरते थे क़ीमत ही मेरी।

–ओमप्रकाश यती

फूस–पत्ते अगर नहीं मिलते

फूस–पत्ते अगर नहीं मिलते।
कितने लोगों को घर नहीं मिलते।

देखना चाहते हैं हम जिनको
स्वप्न वो रात भर नहीं मिलते।

जंगलों में भी जाके ढूँढ़ो तो
इस क़दर जानवर नहीं मिलते।

दूर परदेश के अतिथियों से
दौड़कर के नगर नहीं मिलते।

चाहती हैं जो बाँटना खुशबू
उन हवाओं को ‘पर’ नहीं मिलते।

–ओमप्रकाश यती

दुख तो गाँव–मुहल्ले के भी

दुख तो गाँव–मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी।
पर जीवन की भट्ठी में ख़ुद जरते आए बाबूजी।

कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब तो नहीं जुटा पाए
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी।

बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गवने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी

कुछ भी नहीं नतीजा निकला, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट–कचहरी करते आए बाबूजी।

कभी वसूली खाद–बीज की कभी नहर के पानी की
हरदम उस बूढ़े अमीन से डरते आए बाबूजी।

नाती–पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी।

–ओम प्रकाश यती

होने में सुबह पलक झपकने की देर है

होने में सुबह पलक झपकने की देर है।
सूरज में जमी बर्फ़ पिघलने की देर है।

यह भीड़ तोड़ डालेगी हर शीशमहल को
पत्थर कहीं से एक उछलने की देर है।

बनने लगेगा कारवां आने लगेंगे लोग
घर छोड़ के बस तेरे निकलने की देर है।

फूलों के बिस्तरे पे पहुँचना नहीं कठिन
काँटों के रास्ते से गुज़रने की देर है।

जिस काम को ‘यती’ समझ रहे हो असंभव
उस काम को करने पे उतरने की देर है।

–ओमप्रकाश यती

कुछ नमक से भरी थैलियाँ खोलिए

कुछ नमक से भरी थैलियाँ खोलिए।
फिर मेरे घाव की पट्टियाँ खोलिए।

मेरे ‘पर’ तो कतर ही दिए आपने
अब तो पैरों की ये रस्सियाँ खोलिए।

पहले आहट को पहचानिए तो सही
जल्दबाज़ी में मत खिड़कियाँ खोलिए।

भेज सकता है काग़ज के बम भी कोई
ऐसे झटके से मत चिटिठयाँ खोलिए।

जिसको बिकना है चुपके से बिक जाएगा
यूँ खुले आम मत मण्डियाँ खोलिए।

–ओमप्रकाश यती

स्वार्थ की अंधी गुफ़ाओं तक रहे

स्वार्थ की अंधी गुफ़ाओं तक रहे।
लोग बस अपनी व्यथाओं तक रहे।

काम संकट में नहीं आया कोई।
मित्र भी शुभकामनाओं तक रहे।

क्षुब्ध था मन देवताओं से मगर।
स्वर हमारे प्रार्थनाओं तक रहे।

लोक को उन साधुओं से क्या मिला
जो हमेशा कन्दराओं तक रहे।

सामने ज्वालामुखी थे किन्तु हम
इन्द्रधनुषी कल्पनाओं तक रहे।

–ओम प्रकाश यती

तुम्हें कल की कोई चिन्ता

तुम्हें कल की कोई चिन्ता नहीं है।
तुम्हारी आँख में सपना नहीं है।

ग़लत है ग़ैर कहना ही किसी को
कोई भी शख्स जब अपना नहीं है।

सभी को मिल गया है साथ ग़म का
यहाँ अब कोई भी तनहा नहीं है।

बँधी हैं हर किसी के हाथ घड़ियाँ
पकड़ में एक भी लम्हा नहीं है।

मेरी मंज़िल उठाकर दूर रख दो
अभी तो पाँव में छाला नहीं है।

–ओम प्रकाश यती

पर्वत, जंगल पार करेगी

पर्वत, जंगल पार करेगी बंजर में आ जाएगी
बहते–बहते नदिया इक दिन सागर में आ जाएगी

कोंपल का उत्साह देखकर शायद मोम हुआ होगा
वर्ना इतनी नरमी कैसे पत्थर में आ जाएगी

बहनों की शादी का कितना बोझ उठाना है मुझको
ये बतलाने वाली लड़की अब घर में आ जाएगी।

भाभी जब भाभी माँ बनकर प्यार लुटाएगी अपना
लछिमन वाली मर्यादा भी देवर में आ जाएगी।

कारण बहुत निराशा के हैं, मुश्किल हैं राहें लेकिन
कोशिश करने से तब्दीली मंज़र में आ जाएगी।

शाम हुई तो कुछ रंगीनी बढ़ जाएगी शहरों की
और गाँव की बस्ती काली चादर में आ जाएगी।

–ओम प्रकाश यती