10 April 2010

नदी कानून की, शातिर शिकारी

नदी कानून की, शातिर शिकारी तैर जाता है।
यहाँ पर डूबता हल्का है भारी तैर जाता है।

उसे कब नाव की, पतवार की दरकार होती है
निभानी है जिसे लहरों से यारी, तैर जाता है।

बताते हैं कि भवसागर में दौलत की नहीं चलती
वहाँ रह जाते हैं राजा भिखारी तैर जाता है।

समझता है तुम्हारे नाम की महिमा को पत्थर भी
तभी है राम! मर्ज़ी पर तुम्हारी तैर जाता है।

निकलते हैं जो बच्चे घर से बाहर खेलने को भी
मुहल्ले भर की आँखों में ‘निठारी’ तैर जाता है।

–ओमप्रकाश यती

1 comment:

  1. Dear Yati ji,
    samajik vyavastha par chot karti aap ki is kavita mein dum hai. Kahin bhari to kahin halka tair jata hai ka yeh vishleshan antrman ko jhakjhorta hai. Thanks for the poem.
    -guest

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