10 April 2010

दुख तो गाँव–मुहल्ले के भी

दुख तो गाँव–मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी।
पर जीवन की भट्ठी में ख़ुद जरते आए बाबूजी।

कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब तो नहीं जुटा पाए
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी।

बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गवने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी

कुछ भी नहीं नतीजा निकला, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट–कचहरी करते आए बाबूजी।

कभी वसूली खाद–बीज की कभी नहर के पानी की
हरदम उस बूढ़े अमीन से डरते आए बाबूजी।

नाती–पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी।

–ओम प्रकाश यती

2 comments:

  1. क्या कहू में इस रचना के लिए समझ नहीं पा रही ये भाव मेरे लिए सदैव दर्द देने वाला होता है न जाने क्यों...बस कामल उतरा है भाव को

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  2. रचना पर प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद............"यती"

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